भगवान हमारी माता है

भगवान हमारी माता है


भगवान  हमारी माता  है 

-गुम्बद अथवा कुएं  की प्रति ध्वनि की तरह हमारा प्रेम ही ईश्वरीये प्रेम एवं अनुग्रह बन कर हमारे पास वापिस लौटता है ।

-जिस स्तर का भाव वा प्यार हम भगवान  के प्रति व्यक्त करते है उसी के अनुरूप दीवार पर मारी हुई रबड़ की गेंद की तरह भगवान की अनुकम्पा हमारे पास वापिस आती  है ।

-इसलिये भगवान को अपना कोई  ना कोई सम्बन्धी मान  कर चलना  होता है । तभी हमारी प्रगति होती है ।

-भगवान  के साथ  कोई भी सम्बन्ध स्थापित किया  जा सकता है ।

-प्रार्थना या आरती में तुम्ही हो माता -पिता, बंधु- सखा  तुम्ही हो....... यह कह कर भगवान  को याद करते है ।

-भगवान  से सम्बन्ध जोड़ने की सब से उत्तम विधि है, उसे माता  मान कर याद करो ।

-माता से बढ़ कर परम निस्वार्थ, कोमल, करुणा  एवं वात्सल्य से पूर्ण और कोई रिश्ता  हो ही नही सकता ।

-यों तो पिता  भी  बच्चो से प्यार करते है, परंतु उस प्यार के  स्तर की तुलना  माता के प्यार से  नही कर सकते ।

-इसलिये भगवान  को माता मान कर चलना  अपने ही हित में है ।

-नारी के प्रति मनुष्य में एक वासनातमक प्रवृति की जड़ जमाये बैठी रहती है ।यदि इसे हटाया जा सके । नर और नारी के बीच  अपवित्रता की कल्पना हटाई  जा सके तो विष को अमृत में बदलने जैसा  भावनात्मक रसायन बना सकते  है ।

-नर और नारी के बीच  जो आकर्षण की धारा  सी बहती रहती है उनका  सम्पर्क वैसा  ही प्रभाव उत्पन्न कर सकता   है जैसा  बिजली के दो तार, नेगेटिव और पॉज़िटिव मिल कर आज के युग में    बड़े से  बड़े काम  कर  रहें है ।

-माता और पुत्र  के मिलन से एक अत्यंत उत्कृष्ट स्तर की आध्यात्मिक विद्युत धारा  उत्पन्न होती है ।

-बहिने परमात्मा को पिता के रूप मे याद करें।

-माता  के स्नेह से विहीन बालकों में एक बड़ा मानसिक अभाव रह जाता  है भले ही उन्हे सांसरिक सुविधायें कितनी भी अधिक क्यों न हो ।

-पत्नी, बहिन, पुत्री आदि के रुप में भी  नारी नर को महत्वपूर्ण भावनात्मक शक्ति प्रदान करती है । उसकी मानसिक अपूर्णता को पूर्ण करने में सहायक होती है ।

-जिन बच्चो व  व्यक्तियों को स्नेह नही मिलता प्रायः उन्हे ही  नशे की आदतें, लड़ाई झगडे की आदते लग जाती है । ऐसे लोग  सदा  पीड़ित  रहते है और  अपराधी वृत्ति के बन जाते है या भिखारी बन जाते है या दिल शिकस्त बन जाते है, सार में कहो तो दुःख  अशांति का कारण   स्नेह की कमी है ।

-यह सांसारिक स्तर की बात उपासना  के क्षेत्र में भी  लागू होती है ।

-नर और नारी के बीच पवित्रता की स्थापना हो जाने पर अनेक बाधायें, कुंठायें और विकृतियां दूर हो सकती  है ।

-पुरुष की अपूर्णताए  नारी के स्नेह सिंचन से ही दूर हो सकती है । परंतु इस समय विकृति इतनी ज्यादा व्यापक है कि  यह बहिनों के सामर्थ्य से बाहर है । इसलिये नारी के रुप में अगर हम भगवान  को याद करें तो यही सब से उचित होगा । क्योंकि भगवान  सर्व समर्थ है ।

-नारी मात्र के प्रति उच्च भाव  रखने और उनके साथ सद व्यवहार  करने से व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण विकास हो सकता है ।

-अगर आप  आपना कल्याण  चाहते हैं  तॊ  स्त्री की निंदा न करें, न  उन्हे मारे, न  उनसे छल करें, न उनका जी  दुखाये ।

-जब हम भगवान को माता के रुप में पूजते है तो वे हमारे लिये माता जैसा वात्सल्य ले कर प्रस्तुत होते है ।

-पिता की तुलना में माता का हृदय अत्यधिक कोमल होता  है । माता अपने पुत्र एवं भक्त के प्रति सहज ही करुणामयी हो उठती है ।

-दर्पण में अपना  ही प्रति बिम्ब दिखता है । कुएं में अपनी   ही प्रति ध्वनि वापिस लौटती है । स्फटिक मणि के निकट जिस रंग की वस्तु रखी होगी उसी रंग की वह    मणि  दिखाई  देगी ।

-भगवान को हम माता -पिता, बंधु' - सखा  आदि जिस किसी भाव  से देखेंगे वे उसी भाव  के अनुसार हमारे लिये प्रति ध्वनित करेगें ।

-विज्ञानिक  कारण यह है कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक रुप से अधिक होता है ।

-पुरुष शरीर और मन में कुछ ऐसी कमियां है जो स्त्री से ही पूरी होती है । उन अभावों की  पूर्ति  के लिये विपरीत लिंग की  ओर सदैव खिंचाव रहता है ।

- --ध्यान करते समय पुरुष रुप में उतनी रुचि नही होती जितनी की स्त्री रुप में ।

-अगर हम भगवन को प्रेम करते है और उनका अनन्य प्रेम पाना चाहते  है तब उन्हे माता रुप में याद करना चाहिये ।

-नारी शक्ति आदरणीय,पूजनीय और वंदनीय है ।

-पुत्री के रुप में, बहिन के रुप में, स्नेह करने योग्य है, मैत्री करने योग्य है ।

- पुरुष के शुष्क मन में अमृत सिंचन यदि नारी द्वारा नही हो पाता तो वह बड़ा रूखा, कर्कश, क्रूर, निराश, संकीर्ण एवं अविकसित रह जाता  है ।

-वर्षा  से जैसे धरती का हृदय खुश होता है और उसकी प्रसन्नता हरियाली एवं पुष्पों के रूप में प्रकट होती है, वैसे ही अगर भगवान  को नारी रुप में याद करें तो उसकी स्नेह वर्षा से इसी प्रकार सिंचन कर अपनी शक्तियों का विकास कर सकते है ।

-एक भारी  विघ्न इस मार्ग में वासना का है जो अमृत को भी  विष  बना देता है ।

-दुराचार, कुदृष्टि एवं वासना का सम्मिश्रण हो जाने से नर नारी के सानिध्य से प्राप्त होने वाला अमृत फल बिष बीज बन जाते है । इसी बुराई के कारण स्त्री वा  पुरष को अलग अलग रहने के समाजिक्र नियम  बनाये है ।

-नारी को पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र माना जाता है । उनके नाम के पीछे जन्मजात उपाधि ' देवी' प्रायः जुड़ा  रहता है । शांति देवी, गंगा देवी, दया देवी पर नाम कन्याओं के रखे  जाते  है ।

-बहिने भगवन को पुरुष रूप अर्थात श्री कृष्ण, श्री राम , श्री गुरुनानक देव , भगवान ईशू या दूसरे धर्मपिता जिस पर आप कीआस्था है 1

- ऐसा करते हुये बीच मे निराकार परमात्मा के बिंदु रूप को देखते रहें ।
ओम शान्ति.. 

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